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दोनों गठबंधनों की सबसे अहम परीक्षा, राष्ट्रीय राजनीति की दिशा तय करेगा बिहार का नतीजा

संसदीय लोकतंत्र में हर चुनाव महत्वपूर्ण होता है, लेकिन बिहार के दोनों गठबंधनों के लिए इस चुनाव के खास मायने हैं। इससे सिर्फ बिहार की भावी सत्ता का स्वरूप ही नहीं तय होगा, इसके नतीजे देश के भावी राजनीतिक समीकरण का चेहरा-मोहरा भी तय करेंगे।
Urmilesh
Jun 17 2015
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संसदीय लोकतंत्र में हर चुनाव महत्वपूर्ण होता है, लेकिन बिहार के दोनों गठबंधनों के लिए इस चुनाव के खास मायने हैं। इससे सिर्फ बिहार की भावी सत्ता का स्वरूप ही नहीं तय होगा, इसके नतीजे देश के भावी राजनीतिक समीकरण का चेहरा-मोहरा भी तय करेंगे।
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बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने गुरुवार को पटना में राजद प्रमुख लालू प्रसाद को अपने 68 वें जन्मदिन पर बधाई दी। पीटीआई फोटो

संसदीय लोकतंत्र में हर चुनाव महत्वपूर्ण होता है, लेकिन बिहार के दोनों गठबंधनों के लिए इस चुनाव के खास मायने हैं। इससे सिर्फ बिहार की भावी सत्ता का स्वरूप ही नहीं तय होगा, इसके नतीजे देश के भावी राजनीतिक समीकरण का चेहरा-मोहरा भी तय करेंगे।

उर्मिलेश

बिहार के दोनों बड़े गठबंधनों में किसी के लिये भी इस बार का विधानसभा चुनाव आसान नहीं दिख रहा है। राज्य के दो बड़े दलों-राष्ट्रीय जनता दल और सत्तारूढ़ जनता दल(यू) के मिलकर साथ लड़ने के एलान के बाद लग रहा था कि जातीय-सामाजिक समीकरण और निकट-अतीत के चुनावों में मिले वोट-प्रतिशतांक के हिसाब से यह गठबंधन अपने प्रबल प्रतिद्वन्द्वी भारतीय जनता पार्टी-लोजपा आदि के गठबंधन पर बहुत भारी पड़ेगा।

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अगर पिछले चुनावों के राजनीतिक समीकरण और विभिन्न दलों के मिले वोट-प्रतिशत का हिसाब करें तो नीतीश-लालू का गठबंधन, जिसमें कांग्रेस-एनसीपी भी जुड़ने वाले हैं, के पास बड़ा वोट-आधार नजर आता है। भाजपा की अब तक की सबसे बड़ी कामयाबी के रूप में दर्ज किये जाने वाले 2014 के लोकसभा चुनाव के आकड़ों की रोशनी में भी देखें तो बिहार में राजद-जद(यू)-कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन को 45 फीसदी से भी ज्यादा वोट पड़े थे, जबकि भाजपा को सिर्फ 29.41 फीसदी वोट पड़े और उसे लोकसभा की 40 में 22 सीटों पर कामयाबी मिली। राजद 20 फीसदी से कुछ ज्यादा वोट पाकर सिर्फ 4 सांसद जिता सका, जबकि जद(यू) और कांग्रेस को क्रमशः 15.8 फीसदी व 8.4 फीसदी वोटों के साथ सिर्फ दो-दो संसदीय सीटों से संतोष करना पड़ा था।

इस तरह नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भाजपा को बिहार में भी अभूतपूर्व कामयाबी मिली। लेकिन तब राजद-जद(यू) का गठबंधन नहीं था। पिछड़े-अल्पसंख्यक-दलित वोटों में जबर्दस्त विभाजन हुआ था। इस हिसाब से देखें तो लालू-नीतीश अपने प्रतिद्वन्द्वी भाजपा-गठबंधन पर भारी पड़ते हैं। लेकिन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह, जो जोड़-घटाव के उस्ताद हैं, की बात एक हद तक सही है कि सियासत में दो और दो मिलकर हमेशा चार नहीं होते। पर सियासत में दो और दो मिलकर हमेशा ‘जीरो’ ही होंगे, यह भी नहीं कहा जा सकता। ऐसे में इस चुनाव के नतीजे बहुत हद तक दोनों गठबंधनों की रणनीति, खासतौर पर प्रचारतंत्र और उम्मीदवार-चयन पर निर्भर होंगे। फिलहाल, जोड़तोड़ में भाजपा ज्यादा आक्रामक और कामयाब दिख रही है।

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‘वोटकटवा’ की राजनीति

बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने गुरुवार को नई दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष, अमित शाह, के साथ एक बैठक की । विजय वर्मा / पीटीआई फोटो

बीते सप्ताह एक साथ दो राजनीतिक घटनायें हुईं। राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी ने औपचारिक तौर पर भाजपा-नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में शामिल होने के फैसले का ऐलान किया। उनके भाजपा के साथ जुड़ने का अनुमान पहले से ही किया जा रहा था। दूसरी तरफ, राजद के विवादास्पद सांसद राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव ने राजद छोड़ने के ऐलान के साथ ही एक क्षेत्रीय राजनीतिक मंच के गठन की घोषणा कर दी। यह बात सही है कि दोनों को मिलने वाले समर्थन का स्वरूप राज्यव्यापी न होकर स्थानीय स्तर का है। लेकिन वे जो भी समर्थन अपने लिये जुटायेंगे, वह सब राजद-जद(यू) के खाते से ही होगा और इसका पूरा फायदा भाजपा गठबंधन को मिलेगा।

बिहार की राजनीति में पप्पू यादव जैसों को ‘सियासत का पापी-अपराधी’ बताने वाली भाजपा अब उन्हें सिर पर बिठा रही है। बताते हैं कि पार्टी नेतृत्व इस बात पर विचार कर रहा है कि पप्पू यादव को अपने गठबंधन का हिस्सा बनाने से ज्यादा फायदा मिलेगा या उनकी नवगठित पार्टी को कोसी अंचल और अन्य इलाकों में राजद के ‘वोटकटवा’ के रूप में अलग लड़ने देना चाहिये! जो भी हो, बाहुबली और लंबे समय तक विभिन्न आपराधिक मामलों में जेल में रहे पप्पू यादव अब भगवा-पार्टी के अघोषित ‘रणनीतिक सहयोगी’ बन गये हैं। वह भले ही ज्यादा सीटों पर कामयाबी न पा सकें लेकिन लालू के कथित ‘वोट बैंक’ में कुछ न कुछ सेंधमारी तो जरूर कर लेंगे। भाजपा गठबंधन के लिये यह भारी मदद होगी।

सामाजिक न्याय

लालू-नीतीश का गठबंधन वोट-आधार के हिसाब से बड़ा तो जरूर है पर हमें नहीं भूलना चाहिये कि यह बीते डेढ़ दशक से परस्पर विरोधी रहे दो दलों का चुनावी गठबंधन है। दोनों नेता अलग-अलग कारणों से अपने राजनीतिक जीवन के बेहतरीन दौर में नहीं हैं। दोनों धीरे-धीरे अपनी राजनीतिक तेजस्विता खोते रहे हैं। नीतीश सत्ता में हैं, एक स्तर से उनके लिये एंटी-इनकंबेंसी की भी चुनौती है। सामाजिक न्याय आदि के नाम पर सियासत शुरू करने वाले इन दोनों नेताओं ने बीते बीस सालों में अपने समर्थकों और मतदाताओं को गहरे स्तर पर निराश भी किया है।

लालू से उग्र मतभेद के चलते नीतीश ने सन 1994 के बाद समता पार्टी बना ली। कुछ समय बाद वह बिहार में भाजपा के गठबंधन सहयोगी बन गये और अंततः लालू के सियासी शिकस्त देने में कामयाब हो गये। यह वही दौर था, जब बिहार का सवर्ण और सामंती समुदाय कांग्रेस छोड़ भाजपा की तरफ जा रहा था। नीतीश को अपनी छवि चमकाने का मौका मिला। मीडिया और प्रभुत्वशाली तबकों के समर्थन से उन्होंने ‘विकासवादी नेता’ का छवि अर्जित की। लोगों ने लालू के ‘जंगलराज’(भाजपा-जद-यू गठबंधन का दिया विशेषण, जिसे मीडिया ने भी अपना जुमला बना लिया) के खिलाफ नीतीश के ‘विकास-राज’ में अपनी खुशहाली का रास्ता देखा।

बिहार में उन दिनों विकास का मतलब था-अच्छी सड़कें बनाना। बहुत सारी टूटी-फूटी सड़कों का जीर्णोद्धार हुआ। निर्माण के कामकाज से राज्य की प्रगति दर को उछाल मिला। लेकिन अर्थतंत्र को संवारने और सामाजिक न्याय को आगे बढ़ाने जैसे बड़े एजेंडे को नीतीश ने भी हाथ नहीं लगाया। भाजपा की गोद में बैठे नीतीश कर भी कैसे सकते थे! भूमि सुधार के लिये ‘आपरेशन-बर्गा’ के कार्यकारी पदाधिकारी रहे डी बंदोपाध्याय को बंगाल से बिहार बुलाया गया। लेकिन बिहार में भूमि सुधार पर उनकी प्रोजेक्ट रिपोर्ट को तत्कालीन नीतीश सरकार ने सचिवालय की आलमारी से बाहर निकलने ही नहीं दिया। बंदोपाध्याय बिहार छोड़कर बंगाल लौट गये और तृणमूल के साथ जुड़कर सियासत में दाखिल हो गये। अब वह राज्यसभा सांसद हैं।

इसी तरह बिहार में हुए विभिन्न दलित हत्याकांडों की जांच और सम्बन्धित मुकद्दमों की बेहतर सरकारी निगरानी आदि के लिये गठित अमीरदास आयोग को भी नीतीश सरकार ने ठप्प कर दिया। कुछ ही दिनों बाद लक्ष्मणपुर बाथे आदि के हत्यारों को विभिन्न अदालतों से बाइज्जत रिहा कर दिया गया। सिलसिला जारी है। इससे दलितों-उत्पीड़ित समुदायों में नीतीश की राजनीति को लेकर गहरी निराशा पैदा हुई। उन्हें ‘सवर्ण-सामंती उत्पीड़कों’ के राजनीतिक मित्र के तौर पर देखा जाने लगा। वैसे भी उनकी पार्टी में इस तरह के वर्गों के कई प्रमुख नेता ताकतवर हो गये। उनमें कुछेक नीतीश के खास सलाहकार माने जाते रहे। इनमें कुछ अब भाजपा गठबंधन में जा रहे हैं।

पाटलिपुत्र का मैदान

लोकसभा चुनाव में पार्टी की शर्मनाक पराजय के बाद नीतीश ने योजना के तहत जीतन राम मांझी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था। वह एक तीर से दो निशाने साधना चाहते थे लेकिन कांग्रेसी-राजनीति में प्रशिक्षित और डा. जगन्नाथ मिश्र के ‘राजनीतिक शिष्य’ रहे मांझी की सियासी महत्वाकांक्षाओं ने नीतीश के ‘राजनीतिक प्रकल्प’ को तहत-नहस कर दिया।

नीतीश का अनुमान था कि मुख्यमंत्री पद छोड़ने से उनकी एक तरफ कुर्सी का मोह न करने वाले एक ‘त्यागी नेता की नैतिक छवि’ बनेगी तो दूसरी तरफ, मांझी के सत्तारोहण से दलितों-उत्पीड़तों के बीच उनकी ‘धवल छवि’ बनेगी, जो एक समय अनंत सिंह और सुनील पांडे जैसे सामंती-बाहुबलियों को ‘राजनीतिक संरक्षण’ देने और प्रदेश के बड़े सामंती परिवारों के समर्थन लेने से खराब हो गयी थी। मध्य बिहार में भूस्वामियों की सबसे संगठित निजी सेना-‘ब्रह्मषि सेना’ को संरक्षण देने वाले भाजपा-जद-यू नेताओं की उन दिनों नीतीश दरबार में भरमार सी थी। जद-यू-भाजपा गठबंधन के कई मंत्री भी ‘सेना’ के मुखिया ब्रह्मेश्वर सिंह के ‘भक्त’ थे। इनमें कुछ अब केंद्रीय मंत्रिमंडल में भी शामिल हो चुके हैं।

भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने नीतीश के ‘मांझी-प्रयोग’ का मतलब बहुत जल्दी समझ लिया। वे शुरू से ही उसे ‘पंचर’ करने मे जुट गये। और वे सफल रहे। आज बिहार के चुनावी राजनीतिक समीकरण में भाजपा फिलहाल कुछ फायदे में नजर आ रही है तो सिर्फ इसलिये कि लालू-नीतीश, दोनों से निराश दलित-उत्पीड़ित समुदायों का एक हिस्सा भाजपा के मांझी जैसे सहयोगियों का साथ दे सकता है। वामपंथी बेहद कमजोर और सिकुड़े हुए हैं। दलित-उत्पीड़ितों में उनका पारंपरिक आधार लगातार सिमटता गया है। ऐसे में भाजपा अब मांझी के झुनझुने के जरिये उन्हीं दलितों का समर्थन जुटाने की फिराक में है, जिनके खून के धब्बे उसके कई नेताओं द्वारा समर्थित भूस्वामियों की निजी सेनाओं पर लगे हुये हैं। अगर नीतीश-लालू की जोड़ी ने अति-पिछड़ों और दलितों के नाराज तबकों को फिर से जोड़ने में सफलता पा ली तो भाजपा के लिये बिहार की बेहद अहम चुनावी लड़ाई बेहद मुश्किल हो जायेगी।

संसदीय लोकतंत्र में हर चुनाव महत्वपूर्ण होता है, लेकिन बिहार के दोनों गठबंधनों के लिए इस चुनाव के खास मायने हैं। इससे सिर्फ बिहार की भावी सत्ता का स्वरूप ही नहीं तय होगा, इसके नतीजे देश के भावी राजनीतिक समीकरण का चेहरा-मोहरा भी तय करेंगे। अगर बिहार में भाजपा जीत गयी तो आगे के चुनावों के लिये उसके हौसले बुलंद होंगे। राज्यसभा में बहुमत पाने की उसकी कोशिश को कुछ बल मिलेगा और आगे के विधानसभा चुनावों में ज्यादा दमखम के साथ उतरेगी। दिल्ली विधानसभा चुनाव में शर्मनाक पराजय से उसे बड़ा झटका लगा था। लालू-नीतीश ने पाटलिपुत्र के मैदान में ही भगवाधारियों का रथ रोक दिया तो ‘अच्छे दिन वाली सरकार’ के बुरे दिन शुरू हो सकते हैं। सन 2019 के लिये सियासी किलेबंदी फौरन तेज हो जायेगी। इस मायने में यह चुनाव सभी पक्षों के लिये बड़ी परीक्षा है। जो इसमें भाग ले रहे हैं उनके लिये तो जीवन-मरण का सवाल है है, जो इस चुनाव को गलियारे मे खड़ा होकर बाहर से देख रहे हैं, उनके लिये भी यह महत्वपूर्ण चुनाव है, क्योंकि अंततः चुनाव-नतीजे राष्ट्रीय राजनीति की भावी दिशा तय करेंगे।

उर्मिलेश हिन्दी के पत्रकार-लेखक हैं। बिहार की राजनीति और भूमि सुधार सम्बन्धी समस्याओं पर सन 1991 में प्रकाशित 'बिहार का सच' उऩकी चर्चित पुस्तक है।
This article went live on June seventeenth, two thousand fifteen, at twenty-three minutes past seven in the morning.

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